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मित्र / उषा उपाध्याय
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रो सकें जिनके कंधे पर सर रखकर, ऐसा मित्र मिले,
कालांतर तक हो अचल, बस एक ऐसा छत्र मिले ।
है यूँ तो चंचल हर कोई रंग इस संसार के,
मृत्यु तलक हो साँस में जिसकी महक, वह इत्र मिले ।
बाढ़ की उत्ताल लय में, बिजली कड़के, पाल टूटे राह में,
उस समय जो नाव लगाए पार, वह नक्षत्र मिले ।
और बाट जिसकी देखी हो कितने ही सालों तक,
वह मौत की मंज़िल पर आकर मिले, वह पत्र मिले ।
सब कुछ ही हो पूर्ण ऐसी ज़िन्दगी में क्या मज़ा है ?
अपने ही रंगो से अंकित करूँ ऐसा अधूरा चित्र मिले ।
मूल गुजराती से अनुवाद : स्वयं कवयित्री द्वारा