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शव-2 / समीर बरन नन्दी
Kavita Kosh से
न अर्थी... न फूल... न दीया-बत्ती..
भीतर धरा है - शव !
सभी गली में मौन... संगी-साथी विहीन
दुख सेक कर खाता है, निथर... नीरव
मरना उसका यह है ...मर गया है निजी सपनो का उगना
विचार बुझाता है - आजकल रेत चूस कर ।
कही आता-जाता नहीं, जीभ हो गई है महाधीर --
ड्राईफ्रूट की तरह नाभि, बैठ गया है फास्फोरस का अस्थि-पंजर ।
टूटे दाँत अख़बार पढ़ता बड़बड़ाता है --
ऐसे भी क्या शव पड़ा रहता है ?