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मुक्त क्रीड़ामग्न होकर खिलखिलाना / श्यामनारायण मिश्र

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ऊब जाओ यदि कहीं ससुराल में
एक दिन के वास्ते ही गाँव आना।

     लोग कहते हैं तुम्हारे शहर में
     हो गये दंगे अचानक ईद को ।
     हाल कैसे हैं तुम्हारे क्या पता
     रात भर तरसा विकल मैं दीद को ।

और, वैसे ही सरल है आजकल
आदमी का ख़ून गलियों में बहाना ।

     शहर के ऊँचे मकानों के तले
     रेंगते कीड़े सरीख़े लोग ।
     औ’ उगलते हैं विषैला धुआँ
     ये निरन्तर दानवी उद्योग ।

छटपटाती चेतना होगी तुम्हारी
ढ़ूंढ़ने को मुक्त-सा कोई ठिकाना ।

     बाग़ में फूले कदम्बों के तले
     झूलने की लालसा होगी तुम्हारी ।
     पाँव लटका बैठ मड़वे के किनारे
     भूल जाओगी शहर की ऊब सारी ।

बैठकर चट्टान पर निर्झर तले
मुक्त क्रीड़ा-मग्न होकर खिलखिलाना ।