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शाम की साज़िश / त्रिपुरारि कुमार शर्मा
Kavita Kosh से
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मैं ख़ूब समझता हूँ
शाम की साज़िश
रौशनी जब अपने ही जाले में उलझ जाती है
थान खुलता है जब अंधेरे का
अपने होंठों से रेत चिपका कर
शाम, मेरी छाती से लिपट जाती है
और मेरी गर्दन
जिसपर कुछ भी नहीं है
धूल के सिवा
धूल, उस गर्दन की
जिसे देख कर
क्षितिज-सा गुमान होता था
जब कभी मेरे होंठ
उस सूनी-सी गली में भटक जाते थे
एक अजीब-सा सकून मिलता था
कोई भी परेशानी नहीं
न पढ़ाई का ख़्याल
न नौकरी की फ़िक्र
न बाबूजी की बातें
न माँ की याद
न वक़्त, न दिन, न तारीख़
कुछ भी नहीं
बस एक स्याह दरवाज़ा
और फिर रौशनी ही रौशनी
एक अजीब-सा सकून मिलता था
मैं अब भी खोजने लगता हूँ उसे
जब शाम
मेरी छाती से लिपट जाती है!