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आलोक पुरूष / कन्हैया लाल सेठिया
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कयो
पून्यूं री रात नै
दीवट पर बैठो
साव उदास दिवलो
अबै तु सोच लेई
गुमेजण
थारो चनरमा,
काल स्यूं ही
बधण लाग ज्यासी
म्हारी कुमळायोड़ी जोत
आंतां आंतां
म्हारी भायली मावस
बण ज्या स्यूं मैं ही
ईं अंधेरीज्योड़ी धरती रो
आलोक पुरूष !