नर्तकी / अशोक तिवारी
नर्तकी
स्टेज के कोने से एक मूँछ
एनाउंसमेंट करती है
डांस के लिए ....
मसखरा अभी-अभी
शुक्रिया अदा करके गया है एक दानकर्ता का
तैयारी हो रही है अगले दृश्य की
बदले जा रहे हैं परदे
तब्दील किया जा रहा है राज-दरबार
रखा जा रहा है राजा का सिंहासन
बनाई जा रही है
दरबारियों के लिए जगह
दर्शाने के लिए न्याय का अंतर साफ़-साफ़
फ़रियादियों की जगह को रखा जा रहा है नीचा
परदे के पीछे कई परदे हैं
उन पर्दों के पीछे कई दृश्य हैं
जो आगे होने के लिए हो रहे हैं तैयार
मगर परदे का आगे का भाग
ख़ाली है नाच के लिए
वहां अभी मुस्कराते चेहरे के साथ
एक नर्तकी आएगी
ठुमके लगाएगी
मनचलों का दिल बहलाएगी
नौटंकी के मालिक की जेब भरवाएगी
मेकअप से लिपी-पुती ये नर्तकी
औरत होने के साथ-साथ माँ है
जो चिपकाए बैठी है नन्हें बच्चे को
अपनी छाती से विंग्स में
दूध पिलाने के वास्ते .....
उसके नाम का एनाउंसमेंट
हो रहा है बार-बार
लाउडस्पीकर पर
मगर बच्चा है कि छोड़ ही नहीं रहा है
माँ से अलग होने की संवेदना
बच्चे को विचलित करती है
फ़िल्मी धुन के साथ गाने के बोल
हो गए हैं और तेज़
"......हम तुम चोरी से
बँधे एक डोरी से ......"
..............
और डोरी में बँधी हुई
एक माँ
न चाहते हुए भी
छाती से छुड़ाकर अपनी जान को
मुंह मोड़ती है
बच्चा है कि चुप ही नहीं होता
माँ की गंध और कौन है जो जान पाएगा
तेज़ होती जाती है जैसे-जैसे
बच्चे के रोने की चीख़
छाती में उमड़-उमड़ने लगता है
उसके अंदर का ज्वार
नसों में बहता हुआ गर्म अहसास
समा जाता है उसकी पोर-पोर में
हक़ीकतन एक माँ
धीरे-धीरे
रूपांतरित होती जाती है कलाकार में
उतर जाती है जो स्टेज पर
अभिनय के लिए
एक माँ पर भारी होते कलाकार
के थिरकते क़दम
उठाते हैं कई सवाल
कि कितने अभिनय निभा रही है वो एक साथ ...
घर के कोने-कोने में बिखरी
एक पत्नी...एक बहू
एक माँ
एक कलाकार
तालियों की गड़गड़ाहट और
मनचलों की छिछोरी टिप्पणियों में
ढूँढ़ते हुए अपने रिश्तों को
एक औरत
महसूस करती है अपने को
ठगी-सी, अधूरी
और बिकी-बिकी-सी
चोरी-चोरी नहीं खुलेआम
एक डोरी से नहीं
लाखों-लाख डोरियों से बँधी हुई
कि हो न जाय कहीं वो
टस से मस....
और मूँछ है कि पसरी पड़ी है
मसंद के सहारे
अगले एनाउंसमेंट के लिए ...!!
(आठवें दशक में लाल बहादुर शास्त्री इंटर कॉलेज, इगलास के अहाते में होने वाली नौटंकी की कुछ यादें)
04 /08 /2011