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पारपत्र.. / सुकान्त भट्टाचार्य

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भूमिष्ठ हुआ जो शिशु आज रात
उसी के मुँह से मिली है ख़बर
कि पास उसके एक पारपत्र
जिसके साथ खड़ा वह विश्व के द्वार
भर कर एक ज़ोर की चीख़
उसने जताया है अपना हक़ जनमते ही ।

नन्हा, निस्सहाय वह
फिर भी मुट्ठियाँ भिंची हुई
लहराती-फ़हराती
न जाने किस अबूझ अंगीकार में ।
अबूझ उसकी भाषा सबके लिए
कोई हँसता, कोई देता मीठी झिड़की ।

मैंने समझी उसकी भाषा मन ही मन
पाई चिट्ठी नई, आने वाले युग की
मैंने पढ़ा वह पहचान-पत्र
भूमिष्ठ शिशु की धुँधली, कुहासे से भरी
आँखों में ।

आया है नवीन शिशु
छोड़ देनी होगी जगह उसके लिए
चले जाना होगा हमें व्यर्थ ही
जीर्ण-धरा पर मृत ध्वंसस्तूप की ओट ।

जाऊँगा, लेकिन जब तक है जान
हटाऊँगा धरती के सब जंजाल
दुनिया को इस शिशु के रहने लायक
बना जाऊँगा
नवजातक के प्रति यह मेरा दृढ़ अंगीकार ।

और अन्त में निबटा कर सारे काम
अपने लहू से नवीन शिशु को दूँगा आशीर्वाद
हो जाऊँगा इतिहास उसके बाद ।

मूल बंगला से अनुवाद : नील कमल