भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कलाकार का स्वर्ग / जगन्नाथप्रसाद 'मिलिंद'

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:02, 22 दिसम्बर 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ले लो कर्म-क्लांत यह जीवन, ले लो जप, तप, व्रत, साधन;
बन जाने दो जग की पद-रज मेरा गौरव, मेरा धन।
खो जाने दो मुझे विश्व के सुख-दुख के कोलाहल में;
मूक उपेक्षा के आँगन में, विस्मृति के तम-अंचल में।
सब कुछ ले लो, मुझे बना दो ‘रंको का राजा’, स्वामी!
पर, मनुहार माननी होगी इतनी-सी, अंतर्यामी!
जब भावना-तूलिका मेरी, डूब उषा के सोने में,
अनुभव की तस्वीर उतारे, अन्तर-पट के कोने में,
अपनी ही उस सफल सृष्टि पर चढ़ा शेष आँसू दो-चार,
अर्पण-मद में वारे अपना, मुग्ध हृदय, अंतिम आधार;
त्याग-तृप्ति का वह असीम सुख अविचल सह लेने देना,
उस सौंदर्य-स्वर्ग में मुझ को क्षण भर रह लेने देना।