जेंवत कान्ह नंद इकठौरे / सूरदास
जेंवत कान्ह नंद इकठौरे ।
कछुक खात लपटात दोउ कर, बालकेलि अति भोरे ॥
बरा-कौर मेलत मुख भीतर, मिरिच दसन टकटौरे ।
तीछन लगी नैन भरि आए, रोवत बाहर दौरे ॥
फूँकति बदन रोहिनी ठाढ़ी, लिए लगाइ अँकोरे।
सूर स्याम कौं मधुर कौर दै कीन्हें तात निहोरे ॥
भावार्थ :-- श्रीनन्द जी और कन्हाई एक स्थान में ( एक थाल में ) भोजन कर रहे हैं । बालोचित क्रीड़ा के आवेश में अत्यन्त भोले बने हुए श्रीकृष्ण कुछ खाते हैं और कुछ दोनों हाथों में लिपटा लेते हैं । कभी मुख में बड़े का ग्रास डालते हैं । (इस प्रकार भोजन करते हुए) दाँतों से मिर्च का स्पर्श हो जाने पर वह तीक्ण लगी । नेत्रों में जल भर आया, रोते हुए बाहर दौड़ चले । माता रोहिणी ने उठाकर उन्हें गोद में ले लिया और खड़ी-खड़ी उनके मुख को फूँकने लगीं । सूरदास जी कहते हैं कि बाबा ने श्यामसुन्दर को मीठा ग्रास देकर उनको प्रसन्न किया ।