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गोपाल दुरे हैं माखन खात / सूरदास

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राग धनाश्री


गोपाल दुरे हैं माखन खात ।
देखि सखी ! सोभा जु बनी है स्याम मनोहर गात ॥
उठि,अवलोकि ओट ठाढ़े ह्वै, जिहिं बिधि हैं लखि लेत ।
चकित नैन चहूँ दिसि चितवत, और सखनि कौं देत ॥
सुंदर कर आनन समीप, अति राजत इहिं आकार ।
जलरुह मनौ बैर बिधु सौं तजि, मिलत लएँ उपहार ॥
गिरि-गिरि परत बदन तैं उर पर हैं दधि, सूत के बिंदु ।
मानहुँ सुभग सुधा-कन बरषत प्रियजन आगम इंदु ॥
बाल-बिनोद बिलोकि सूर-प्रभु सिथिल भईं ब्रजनारि ।
फुरै न बचन बरजिवैं कारन, रहीं बिचारि-बिचारि ॥

भावार्थ ;-- एक गोपी कहती है-) `सखी ! गोपाल छिपे-छिपे मक्खन खा रहे हैं । उनके मनोहर श्याम-शरीर की देख तो कैसी शोभा बनी है? किस प्रकार वे उठते हैं, आड़ में खड़े होकर इधर-उधर ताक लेते हैं । चकित नेत्रों से चारों ओर देखते हैं । दूसरे सखाओं को (मक्खन) देते हैं, इससे इनका सुन्दर हाथ सखाओं के मुख के पास इस प्रकार शोभा देता है मानो कमल चन्द्रमा से अपनी शत्रुता छोड़ कर उपहार लिये हुए उससे मिल रहा है । मक्खन के कण बार-बार मुख से वक्ष-स्थल पर गिर पड़ते हैं मानो चन्द्रमा अपने प्रियजन (श्रीकृष्ण के वक्ष-स्थल में स्थित अपनी बहिन लक्ष्मी) का आगमन समझ कर सुहावनी अमृत की बूंदों की वर्षा कर रहा है । सूरदास जी कहते हैं कि मेरे स्वामी का बाल-विनोद देखकर व्रज की सभी नारियाँ (प्रेम-वश) शिथिल हो रही हैं, वे सोच-सोच कर रह जाती हैं, किंतु (मोहन को) रोकने के लिये मुख से शब्द निकलते ही नहीं ।'