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तुर्कमान गेट / शमशेर बहादुर सिंह
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ओस टपकी है कैसी ज़हरआलूद !
ज़्ख़्म-ता-ज़ख़्म बाग में है जमूद
जो भी गुंचा खिला वो ज़ख़्मी था :
सुर्ख बेशक बहार का था वुज़ूद !
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यही अपना मक़ान है, जो कि था ।
हाँ ! यही सायबान है, जो कि था !
होंट गोया हैं सूखे पत्तों से ।
ख़ामुशी चीखती है आँखों से ।
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इन्हीं गलियों में थे तो ग़ालिब भी ।
"नींद क्यों रात भर नहीं आती ! ?
ज़मूद=गतिरोध की जड़ता; वुज़ूद=अस्तित्व; सायबान=छानी-छप्पर