भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मन तोसों कोटिक बार कहीं / सूरदास

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:26, 3 अक्टूबर 2007 का अवतरण

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग बिलावल


मन तोसों कोटिक बार कहीं।

समुझि न चरन गहे गोविन्द के, उर अघ-सूल सही॥

सुमिरन ध्यान कथा हरिजू की, यह एकौ न रही।

लोभी लंपट विषयनि सों हित, यौं तेरी निबही॥

छांड़ि कनक मनि रत्न अमोलक, कांच की किरच गही।

ऐसो तू है चतुर बिबेकी, पय तजि पियत महीं॥

ब्रह्मादिक रुद्रादिक रबिससि देखे सुर सबहीं।

सूरदास, भगवन्त-भजन बिनु, सुख तिहुं लोक नहीं॥


भावार्थ :- बहुत समझाने पर भी यह मन वास्तविक तत्व को समझा ही नहीं। विषय-सुखों से ही मित्रता जोड़ी। उन जैसों के साथ ही इसकी बनी। भगवद्-भजन न किया, न किया। कांचन और रत्न को छोड़कर अभागे ने कांच के टुकड़े पसन्द किये। दूध फेंककर मट्ठा पिया !सारांश यह कि विषयों में स्थायी आनन्द नहीं। वह तो विवेकपूर्वक किये हुए हरि भजन में ही है।


शब्दार्थ :- अघसूल सही = पाप-कर्म जनित यातना सहता रहा। यह एकौ न रही = एक भी बात पसन्द न आई। हित = प्रेम। किरच = टुकड़ा। मही =छाछ।