भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भादों की उमस / अज्ञेय

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:46, 13 अगस्त 2012 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सहम कर थम से गए हैं बोल बुलबुल के,
मुग्ध, अनझिप रह गए हैं नेत्र पाटल के,
उमस में बेकल, अचल हैं पात चलदल के,
नियति मानों बँध गई है व्यास में पल के ।

          लास्य कर कौंधी तड़ित् उर पार बादल के,
          वेदना के दो उपेक्षित वीर-कण ढलके
          प्रश्न जागा निम्नतर स्तर बेध हृत्तल के—
          छा गए कैसे अजाने, सहपथिक कल के ?

दिल्ली, 3 अगस्त, 1941