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उद्धव-गोपी संवाद भाग ५ / सूरदास

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वे हरि सकल ठौर के बासी ।
पूरन ब्रह्म अखंडित मंडित, पंडित मुनिनि बिलासी ॥
सप्त पताल ऊरध अध पृथ्वी, तल नभ बरुन बयारी ।
अभ्यंतर दृष्टी देखन कौ, कारन रूप मुरारी ॥
मन बुधि चित्त अहंकार दसेंद्रिय, प्रेरक थंभनकारी ।
ताकैं काज वियोग बिचारत, ये अबला-ब्रजनारी ॥
जाकौ जैसो रूप मन रुचै, सौ अपबस करि लीजै ।
आसन बेसन ध्यान धारना, मन आरोहन कीजै ॥
षट दल अठ द्वादस दल निरमल, अजपा जाप जपाली ।
त्रिकुटी संगम ब्रह्म द्वार भिदि, यौं मिलिहैं बनमाली ॥
एकादस गीता श्रुति साखी, जिहि बिधि मुनि समुझाए ॥
ते सँदेस श्रीमुख गोपिनि कौ, सूर सु मधुप सुनाए ॥1॥

ऊधौ हमरी सौं तुम जाहु ।
यह गोकुल पूनौ कौ चंदा, तुम ह्वै आए राहु ॥
ग्रह के ग्रसे गुसा परगास्यौ, अब लौं करि निरबाहु ।
सब रस लै नँदलाल सिधारे , तुम पठए बड़ साहु ॥
जोग बेचि कै तंदुल लीजै, बीच बसेरे खाहु ।
सूरदास जबहीं उठी जैहौ, मिटिहै मन कौ दाहू ॥2॥

ऊधौ मौन साधि रहे ।
जोग कहि पछितात मन-मन, बहुरि कछु न कहे ॥
स्याम कौं यह नहीं बूझै, अतिहि रहे खिसाइ ।
कहा मैं कहि-कहि लजानी, नार रह्यौ नवाइ ॥
प्रथम ही कहि बचन एकै, रह्यौ गुरु करि मानि ।
सूर प्रभु मोकौ पठायौ, यहै कारन जानि ॥3॥

मधुकर भली करी तुम आए ।
वै बातैं कहि कहि या दुख मैं, ब्रज के लोग हँसाए ।
मोर मुकुट मुरली पीतांबर, पठवहु सौंज हमारी ।
आपुन जटाजूट, मुद्रा धरि, लीजै भस्म अधारी ॥
कौन काज बृंदावन कौ, सुख दही भात की छाक ।
अब वै स्याम कूबरी दोऊ, बने एक ही ताक ॥
वै प्रभु बड़े सखा तुम उनके, जिनकै सुगम अनीति।
या जमुना जल कौ सुभाव यह, सूर बिरह की प्रीति ॥4॥

काहे कौं रोकत मारग सूधौ ।
सुनहु मधुप निरगुन कंटक तैं, राजपंथ क्यौं रूधौं ॥
कै तुम सिखि पठए हौ कुबिजा, कह्यौ स्यामघनहूँ धौं ।
वेद पुरान सुमृति सब ढूँढ़ौ, जुवतिनि जोग कहूँ धौं ॥
ताकौ कहा परेखौ कीजै, जानै छाँछ न दूधौ।
सूर सूर अक्रूर गयौ लै ब्याज निबेरत ऊधौ ॥5॥

ऊधौ कोउ नाहिं न अधिकारी ।
लै न जाहु यह जोग आपनौ, कत तुम होत दुखारी ॥
यह तौ बेद उपनिषद मत है, महा पुरुष ब्रतधारी ।
कम अबला अहीरि ब्रज-बासिनि, नाहीं परत सँभारी ॥
को है सुनत कहत हौ कासौं, कौन कथा बिस्तारी ।
सूर स्याम कैं संग गयौ मन, अहि काँचुली उतारी ॥6॥

वै बातैं जमुना-तीर की ।
कबहुँक सुरति करत हैं मधुकर, हरन हमारे चीर की ॥
लीन्हे बसन देखि ऊँचे द्रुम, रबकि चढँन बलबीर की ।
देखि-देखि सब सखी पुकारतिं, अधिक जुड़ाई नीर की ॥
दोउ हाथ जोरि करि माँगैं, ध्वाई नंद अहीर की ।
सूरदास प्रभु सब सुखदाता, जानत हैं पर पीर की ॥7॥

प्रेम न रुकत हमारे बूतैं ।
किहिं गयंद बाँध्यौ सुनि मधुकर, पदुम नाल के काँचे सूतैं ?
सोवत मनसिज आनि जगायौ, पठै सँदेस स्याम के दूतैं ।
बिरह-समुद्र सुखाइ कौन बिधि, रंचक जोग अगिनि के लूतैं ॥
सुफलक सुत अरु तुम दोऊ मिलि, लीजै मुकुति हमारे हूतैं ।
चाहतिं मिलन सूर के प्रभु कौं, क्यौं पतियाहिं तुम्हारे धूतैं ॥8॥

ऊधौ सुनहु नैकु जो बात ।
अबलनि कौं तुम जोग सिखावत, कहत नहीं पछितात ॥
ज्यौं ससि बिना मलीन कुमुदनी, रबि बिनुहीं जलजात ।
त्यौं हम कमलनैंन बिनु देखे, तलफि-तलफि मुरझात ॥
जिन स्रवननि मुरली सुर अँचयौं, मुद्रा सुनत डरात ।
जिन अधरनि अमृत फल चाख्यौ, ते क्यौं कटु फल खात ॥
कुंकुम चंदन घसि तन लावतं, तिहिं न बिभूति सुहात ।
सूरदास प्रभु बिनु हम यों हैं, ज्यौं तरु जीरन पात ॥9॥

ऊधौ जोग हम नाहीं ।
अबला सार-ज्ञान कह जानैं, कैसैं ध्यान धराहीं ॥
तेई मूँदन नैन कहत हौ, हरि मूरति जिन माहीं ।
ऐसी कथा कपट की मधुकर, हमतैं सुनी न जाहीं ॥
स्रवन चीरि सिर जटा बँधाबहु, ये दुख कौन समाहीं ।
चंदन तजि अंग भस्म बतावत, बिरह-अनल अति दाहीं ॥
जोगी भ्रमत जाहि लगि भूले, सो तो है अप माहीं ।
सूरस्याम तैं न्यारी न पल-छिन , ज्यौं घट तै परछाहीं ॥10॥

हम तौ नंद-घोष के बासी ।
नाम गुपाल जाति कुल गोपक, गोप गुपाल उपासी ॥
गिरवर धारी गोधन चारी, बृंदावन अभिलाषी ।
राजा नंद जसोदा रानी, सजल नदी जमुना सी ॥
मीत हमारे परम मनोहर, कमलनैन सुख रासी ।
सूरदास-प्रभु कहौं कहाँ लौं, अष्ट महा-सिधि दासी ॥11॥

यह गोकुल गोपाल उपासी ।
जे गाहक निर्गुन के ऊधौ, ते सब बसत ईस-पुर कासी ॥
जद्यपि हरि हम तजी अनाथ करि , तदपि रहतिं चरननि रस रासी ।
अपनी सीतलता नहिं छाँड़त, जद्यपि बिधु भयौ राहु-गरासी ॥
किहिं अपराध जोग लिखि पठवत, प्रेम भगति तैं करत उदासी ।
सूरदास ऐसी को बिरहनि, माँगि मुक्ति छाँड़ै गुन रासी ॥12॥

ऐसौ सुनियत द्वै बैसाख ।
देखति नहीं ब्यौंत जीवे कौ, जतन करौ कोउ लाख ॥
मृगमद मलय कपूर कुमकुमा, केसर मलियै साख ।
जरत अगिनि मैं ज्यौं घृत नायौ, तन जरि ह्वै है राख ॥
ता ऊपर लिखि जोग पठावत, खाहु नीम तजि दाख ।
सूरदास ऊधौ की बतियाँ, सब उड़ि बैठीं ताख ॥13॥

इहिं बिधि पावस सदा हमारैं ।
पूरब पवन स्वास उर ऊरध, आनि मिले इकठारैं ॥
बादर स्याम सेत नैननि मैं, बरसि आँसु जल ढ़ारैं ।
अरुन प्रकास पलक दुति दामिनि, गरजनि नाम पियारैं ॥
जातक दादुर मोर प्रगट ब्रज, बसत निरंतर धारैं ।
ऊधव ये तब तैं अटके ब्रज, स्याम रहे हित टारैं ॥
कहिऐ काहि सुनै कत कोऊ, या ब्रज के ब्यौहारैं ।
तुमही सौं कहि-कहि पछितानी, सूर बिरह के धारैं ॥ 14॥

ऊधौ कोकिल कूजत कानन ।
तुम हमकौं उपदेस करत हौ, भस्म लगावन आनन ॥
औरौ सिखी सखा सँग लै लै, टेरत चढ़े पखानन ।
बहुरौ आइ पपीहा कैं मिस, मदन हनत निज बानन ॥
हमतौ निपट अहीरि बावरी, जोग दीजिऐ जानन ।
कहा कथत मासी के आगैं, जानत नानी नानन ॥
तुम तौ हमैं सिखावन आए, जोग होइ निरवानन ।
सूर मुक्ति कैसैं पूजति है, वा मुरली के तानन ॥15॥

हमतैं हरि कबहूँ न उदास ।
रास खिलाइ पिलाइ अधर रस, क्यौं बिसरत ब्रज बास ॥
तुमसौं प्रेम कथा कौ कहिबौ, मनौ काटिबौ घास ।
बहिरौ तान-स्वाद कह जानै, गूँगौ बात मिठास ॥
सुनि री सखी बहुरि हरि ऐहैं, वह सुख वहै बिलास ।
सूरदास ऊधौ अब हमकौं, भाए तेरहौं मास ॥16॥

आयौ घोष बड़ौ ब्यौपारी ।
खेप लादि गुरु ज्ञान जोग की, ब्रज मैं आनि उतारी ॥
फाटक दै कै हाटक माँगत, भोरौ निपट सुधारी ।
धुरही तैं खौटौ खायौ है, लिये फिरत सिर भारी ॥
इनकैं कहे कौन डहकावे, ऐसी कौन अनारी ।
अपनौं दूध छाँड़ि को पीवै, खारे कूप कौ बारी ॥
ऊधौ जाहु सबारैं ह्याँ तै, बेगि गहरु जनि लावहु ।
मुख मागौ पैहौ सूरज प्रभु, साहुहिं आनि दिखावहु ॥17॥

ऊधौ जोग कहा है कीजतु ।
ओढ़ियत है कि बिछैयत है, किधौं खैयत है किधौं पीजतु ॥
कीधौं कछू खिलौना सुंदर, की कछु भूषन नीकौ ।
हमरे नंद-नंदन जो चहियतु, मोहन जीवन जी कौ ॥
तुम जु कहत हरि निगुन निरंतर, निगम नेति है रीति ।
प्रगट रूप की रासि मनोहर, क्यौं छाँड़े परतीति ॥
गाइ चरावन गए घोष तैं, अबहीं हैं फिरि आवत ।
सोई सूर सहाइ हमारे, बेनु रसाल बजावत ॥18॥

अपने स्वारथ के सब कोऊ ।
चुप करि रहौ मधुप रस-लंपट, तुम देखे अरु ओऊ ॥
जो कछु कह्यौ कह्यौ चाहत हौ, कहि निरवारौ सोऊ ।
अब मेरैं मन ऐसियै, षटपद, होनी होउ सु होऊ ॥
तब कत रास रच्यौ वृंदावन, जौ पै ज्ञान हुतोऊ ।
लीन्हे जोग फिरत जुवतिनि मैं, बड़े सुपत तुम दोऊ ॥
छुटि गयौ मान परेखौ रे अलि, हृदै हुतौ वह जोऊ ।
सूरदास प्रभु गोकुल बिसर्‌यौ, चित चिंतामनि खौऊ ॥19॥

मधुकर प्रीति किये पछितानी ।
हम जानी ऐसैंहि निबहैगी, उन कछु औरे ठानी ॥
वा मोहन कौं कौन पतीजै, बोलत मधुरी बानी ।
हमकौं लिखि जोग पठावत, आपु करत रजधानी ॥
सूनी सेज सुहाइ न हरि बिनु, जागति रैनि बिहानी ।
जब तैं गवन कियौ मधुबन कौं, नैननि बरषत पानी ॥
कहियौ जाइ स्याम सुंदर कौं, अंतरगत की जानी ।
सूरदास प्रभु मिलि कै बिछुरे, तातें भई दिवानी ॥20॥

हमारैं हरि हारिल की लकरी ।
मनक्रम वचन नंद-नंदन उर, यह दृड़ करि पकरी ॥
जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि, कान्ह-कान्ह जक री ।
सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यौं करुई ककरी ।
सुतौ व्याधि हमकौं लै आए, देखी सुनी न करी ।
यह तौ सूर नितहिं ले सौंपौ, जिनके मन चकरी ॥21॥

कहा होत जो हरि हित चित धरि, एक बार ब्रज आवते ।
तरसत ब्रज के लोग दरस कौं, निरखि निरखि सुख पावते ॥
मुरली सब्द सुनावत सबहिनि, हरते तन की पीर ।
मधुरे बचन बोलि अमृत मुख, बिरहिनिं देते धीर ॥
सब मिलि जग गावत उनकौ, हरष मानि उर आनत ।
नासत चिन्ता ब्रज बनितनि की, जनम सुफल करि जानत ।
दुरी दुरा कौ खेल न कोऊ, खेलत है ब्रज महियाँ ।
बाल दसा लपटाइ गहत हे, हँस-हँसि हमरी बहिंयाँ ॥
हम दासी बिनु मोल की उनकी, हमहिं जु चित्त बिसारी ।
इत तें उन हरि रहे अब तौ, कुबिजा भई पियारी ॥
हिय मैं बातैं समुझि-समुझि कै, लोचन भरि-भरि आए ।
सूर सनेही स्याम प्रीति के, ते अब भए पराए ॥22॥

मधुकर आपुन होहिं बिराने ।
बाहर हेत हितू कहवावत, भीतर काज सयाने ॥
ज्यौं सुक पिंजर माहिं उचारत, ज्यौं ज्यौं कहत बखाने ।
छुटत हीं उड़ि मिलै अपुन कुल, प्रीति न पल ठहराने ॥
जद्यपि मन नहिं तजत मनोहर, तद्यपि कपटी जाने ।
सूरदास प्रभु कौन काज कौं, माखी मधु लपटाने ॥23॥

हरि तैं भलौ सुपति सीता कौ ।
जाकै बिरह जतन ए कीन्हे, सिंधु कियौ बीता कौ ॥
जाकै बिरह जतन ए कीन्हे, सिंधु कियौ बीता कौ ॥
लंका जारि सकल रिपु मारे, देख्यौ मुख पुनि ताकौ ।
दूत हाथ उन लिखि जु पठायौ, ज्ञान कह्यौ गीता कौ ॥
तिनकौ कहा परेखौ कीजै, कुबिजा के मीता कौ ।
चढ़ै सेज सातौं सुधि बिसरी, ज्यौं पीता चीता कौ ॥
करि अति कृपा जोग लिखि पठयौ, देखि डराईँ ताकौ ।
सूरजदास प्रीति कह जानैं, लोभी नवनीता कौ ॥24॥

ऊधौ क्यौं बिसरत वह नेह ।
हमरैं हृदय आनि नँदनंदन, रचि-रचि कीन्हे गेह ॥
एक दिवस गई गाइ दुहावन, वहाँ जु बरष्यौ मेह ।
लिए उढ़ाइ कामरी मोहन, निज करि मानी देह ॥
अब हमकौं लिखि-लिखि पठवत हैं जोग जुगुति तुम लेह ।
सूरदास बिरहिनि क्यौं जीवैं कौन सयानप एहु ॥25॥

ऊधौ मन माने की बात ।
दाख छुहारा छाँड़ि अमृत-फल, विषकीरा विष खात ॥
ज्यौं चकोर कौं देइ कपूर कोउ, तजि अंगार अघात ।
मधुप करत घर कोरि काठ मैं, बँधत कमल के पात ॥
ज्यौं पतंग हित जानि आपनौ, दीपक सौं लपटात ।
सूरदास जाकौ मन जासौं, सोई ताहि सुहात ॥26॥

इहिं डर बहुरि न गोकुल आए ।
सुनि री सखी हमारी करनी, समुझि मधुपुरी छाए ॥
अधरातक तैं उठि सब बालक, मोहिं टेरैंगे आइ ।
मातु पिता मौकौं पठवैंगे, बनहिं चरावन गाइ ॥
सूने भवन आइ रौकेंगी, दधि-चोरत नवनीत ।
पकरि जसोदा पै लै जैहैं, नाचहु गावहु गीत ॥
ग्वारिनि मोहिं बहुरि बाँधैगी, कैतव बचन सुनाइ ।
वै दुख सूर सुमिरि मन ही मन, बहुरि सहै को जाइ ॥27॥

जौ कोउ बिरहिनि कौ दुख जानै ।
तौ तजि सगुन साँवरी मूरति, कत उपदेसै ज्ञानै ॥
कुमुद चकोर मुदित बिधु निरखत, कहा करै लै भानै ।
चातक सदा स्वाति कौ सेवक, दुखित होत बिनु पानै ॥
भौंर, कुरंग काग कोइल कौं, कविजन कपट बखानैं ।
सूरदास जौ सरबस दीजै, कारै कृतहि न मानैं ॥28॥

ऊधौ सुधि नाहीं या तन की ।
जाइ कहौ तुम कित हौ भूले, हमऽब भईं बन-बन की ॥
इन बन ढ़ूँढ़ि सकल बन ढूँढ़े, बन बेली मधुबन की ।
हारी परीं बृंदावन ढूँढ़त, सुधि न मिली मोहन की ॥
किए बिचार उपचार न लागत, कठिन बिथा भइ मन की ।
सूरदास कोउ कहै स्याम सौं, सुरति करैं गोपिनि की ॥29॥

लरिकाई की प्रेम कहौ अलि कैसैं छूटत ।
कहा कहौं ब्रजनाथ चरित, अंतरगति लूटत ॥
वह चितवनि वह चाल मनोहर वह मुसकानि मंद-धुनि गावनि ।
नटवर-भेष नंद-नंदन कौ वह विनोद, वह बन तैं आवनि ॥
चरन कमल की सौंह करति हौं, यह संदेस मोहिं विष लागत ।
सूरदास पल मोहिं न बिसरति, मोहन मूरति सोवत जागत ॥30॥