Last modified on 17 अक्टूबर 2007, at 21:12

रत्न / जयशंकर प्रसाद

Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:12, 17 अक्टूबर 2007 का अवतरण

मुखपृष्ठ: झरना / जयशंकर प्रसाद


मिल गया था पथ में वह रत्न।

किन्तु मैने फिर किया न यत्न॥

पहल न उसमे था बना,

चढ़ा न रहा खराद।

स्वाभाविकता मे छिपा,

न था कलंक विषाद॥


चमक थी, न थी तड़प की झोंक।

रहा केवल मधु स्निग्धालोक॥

मूल्य था मुझे नही मालूम।

किन्तु मन लेता उसको चूम॥


उसे दिखाने के लिए,

उठता हृदय कचोट।

और रूके रहते सभय,

करे न कोई खोट॥


बिना समझे ही रख दे मूल्य।

न था जिस मणि के कोई तुल्य॥

जान कर के भी उसे अमोल।

बढ़ा कौतूहल का फिर तोल॥


मन आग्रह करने लगा,

लगा पूछने दाम।

चला आँकने के लिए,

वह लोभी बे काम॥


पहन कर किया नहीं व्यवहार।

बनाया नही गले का हार॥