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हरित फौवारों सरीखे धान / नामवर सिंह

हरित फौवारों सरीखे धान
हाशिये-सी विंध्य-मालाएँ
नम्र कन्धों पर झुकीं तुम प्राण
सप्तवर्णी केश फैलाए

जोत का जल पोंछती-सी छाँह
धूप में रह-रहकर उभर आए
स्वप्न के चिथ़डे नयन-तल आह
इस तरह क्यों पोंछते जाएँ ?