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उफनती धार पर / गुलाब सिंह
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हवा के अनुकूल पालें बांधकर
ऊँघते माझी उफनती धार पर।
सूर्य कंधे तक चढ़ा है
गले तक पानी,
सीढ़ियों पर सिर झुकाए
खड़े हैं ध्यानी,
बह रही है नदी
श्रद्धा-प्यार पर।
लहर कोई हो
किनारा तो वही है,
एँड़ियाँ घिसने को
हर पत्थर सही है,
घाट बँधते
भीड़ के आधार पर।
बिन रुके बहना
उमड़ना धार हो जाना
रेत-सीढ़ी-घाट के
उस पार हो जाना
कहाँ दिख पाते किनारे
बाढ़ पर?