भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अनुभव / ज़्यून तकामी
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:41, 8 जनवरी 2012 का अवतरण
|
मैं लेटा हुआ था
औ' दीवार पर लगे आईने में
झलक रहा था बग़ीचा
तभी कोशिश की मैंने
यह देखने की—
कैसे समा जाती है हरियाली
इस आईने में
अचानक
आकाश की चमक से
मेरी आँखें चौंधियाईं
और मुझे चक्कर आने लगा
मेरी जान निकल गई
सिर घूम रहा था
और बेतहाशा
दर्द हो रहा था मेरे सिर में
रूसी से अनुवाद : अनिल जनविजय