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चाँद ज़रा धीरे उगना / बुद्धिनाथ मिश्र
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चाँद, जरा धीरे उगना ।
गोरा-गोरा रूप मेरा।
झलके न चाँदनी में
चाँद, जरा धीरे उगना ।
भूल आई हँसिया मैं गाँव के सिवाने
चोरी-चोरी आई यहाँ उसी के बहाने
पिंजरे में डरा-डरा
प्रान का है सुगना ।
चाँद, जरा धीरे उगना ।
कभी है असाढ़ और कभी अगहन-सा
मेरा चितचोर है उसाँस की छुअन-सा
गहुँवन जैसे यह
साँझ का सरकना ।
चाँद, जरा धीरे उगना ।
जानी-सुनी आहट उठी है मेरे मन में
चुपके-से आया है ज़रूर कोई वन में
मुझको सिखा दे जरा
सारी रात जगना ।
चाँद, जरा धीरे उगना ।