भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बेवतन / ज्योति जङ्गल / सुमन पोखरेल

Kavita Kosh से
Sirjanbindu (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:23, 1 सितम्बर 2024 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अनचाहे हो, ना आओ सपनों मेरी आँखों में। नजरें मेरे वतन के क्षितिजों पर छूट गई हैं।

इस जगह कहीं न दिखनेवाला मैं
एक खोया हुआ ठिकाना भर हूँ।

टूटा हुआ हूँ,
खुद का पलाबढ़ा पेड़ को वहीं कहीं छोड़कर।
पत्तों पर रखकर अपना वजूद को
यूँ ही कहीं गिर गया हूँ,
एक बूढ़े पत्ते की तरह,
ज़र्द संतोष लेकर
या फिर हरी ज़िंदगी गुज़ारकर।

नि:स्वाद को उत्कर्ष तक जीता हूँ हर लम्हा,
अतीत ऐसे काटता है कि हर कदम मरते हुए चलता हूँ।
कितने ही बरस बीत जाएँ लेकिन
सरहद पार की यह मिट्टी मुझे अपनाती नहीं।
कड़वी लगती है मुझे इस आसमान की नीलिमा भी,
और बढ़ती ही चली है मेरी प्यास
इस बेगाने शिविर के पानी से।

न सता मुझे ए! मुजरिम तसल्ली!
कि मुझे अपने वतन के ही किसी हवालात में
कैद होना था।
पनाह के इस कारागार में
बेवजुद मुस्कुराया हुआ मेरा परिचय
मेरी लाश तक आ पहुँचेगा ज़रूर।

वैसे तो अब भी मैं
जिया ही कहाँ हूँ?
०००


...............................................
यहाँ क्लिक गरेर यस कविताको मूल नेपाली पढ्न सकिनेछ ।