Last modified on 15 अप्रैल 2008, at 18:46

चाँदनी रात, नीरव तारे, मैं एकाकी, पथ सोया है


सन्नाटा है या कुहरा है

बढ़ता जाता है गहरा है

इस कुहरे का ही पहरा है

दिन में जो जग था खुल खुला इस श्वेत लहर में खोया है


चलती है बवा टहरती है

पत्तों को चंचल करती है

जड़ता पेड़ों की हरती है

स्वर जगता है सो जाता है जिस को दरणी ने बोया है


उटती है मन की मौन लहर

धीरे धीरे कुछ ठहर ठहर

भटकी सी पथ पर सिहर सिहर

कुछ चित्रों में कॉच गीतों में सारा इतिहास सँजोया है


साँसों की ध्वनि सुन पड़ती है

अपनी ही वॉदी क्या अड़ती है

प्राणों में जा कर गड़ती है

दो ही पैरों की ध्वनि सुनकर किस ने यह जीवन ढोया है


(रचना-काल - 30-11-49)