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मेरे जीवन की / गजानन माधव मुक्तिबोध

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मेरे जीवन की धर्म तुम्ही--

यद्यपि पालन में रही चूक

हे मर्म-स्पर्शिनी आत्मीये।


मैदान-धूप में--

अन्यमनस्का एक और

सिमटी छाया-सा उदासीन

रहता-सा दिखता हूँ यद्यपि खोया-खोया

निज में डूबा-सा भूला-सा

लेकिन मैं रहा घूमता भी

कर अपने अन्तर में धारण

प्रज्ज्वलित ज्ञान का विक्षोभी

व्यापक दिन आग बबूला-सा

मैं यद्यपि भूला-भूला सा

ज्यों बातचीत के शब्द-शोर में एक वाक्य

अनबोला-सा।

मेरे जीवन की तुम्ही धर्म

(मैं सच कह दूँ--

यद्यपि पालन में चूक रही)

नाराज न हो सम्पन्न करो

यह अग्नि-विधायक प्राण-कर्म

हे मर्म-स्पर्शिनी सहचारिणि।


था यद्यपि भूला-भूला सा

पर एक केन्द्र की तेजस्वी अन्वेष-लक्ष्य

आँखों से उर में लाखों को

अंकित करता तौलता रहा

मापता रहा

आधुनिक हँसी के सभ्य चाँद का श्वेत वक्ष

खोजता रहा उस एक विश्व

के सारे पर्वत-गुहा-गर्त

मैंने प्रकाश-चादर की मापी उस पर पीली गिरी पर्त

उस एक केन्द्र की आँखों से देखे मैंने

एक से दूसरे में घुसकर

आधुनिक भवन के सभी कक्ष

उस एक केन्द्र के ही सम्मुख

मैं हूँ विनम्र-अन्तर नत-मुख

ज्यों लक्ष्य फूल पत्तों वाली वृक्ष की शाख

आज भी तुम्हारे वातायान में रही झाँक

सुख फैली मीठी छायाओं के सौ सुख।


मेरे जीवन का तुम्ही धर्म

यद्यपि पालन में रही चूक

हे मर्म-स्पर्शिनी आत्मीये।

सच है कि तुम्हारे छोह भरी

व्यक्तित्वमयी गहरी छाँहों से बहुत दूर

मैं रहा विदेशों में खोया पथ-भूला सा

अन-खोला ही

वक्ष पर रहा लौह-कवच

बाहर के ह्रास लोभों लाभों से

हिय रहा अनाहत स्पन्दन सच,

ये प्राण रहे दुर्भेद्य अथक

आधुनिक मोह के अमित रूप अमिताभों से।


(अपूर्ण। सम्भावित रचनाकाल 1950-51। मुक्तिबोध रचनावली के दूसरे संस्करण में पहली बार प्रकाशित)