भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अभिमान की सज़ा / कांतिमोहन 'सोज़'

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:32, 29 मार्च 2015 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लो सुनो बालको मुझसे एक कहानी
सम्राट एक था वीर मगर अभिमानी
ताक़त थी उसकी जग में जानी-मानी
मिट गया, लड़ाई जिसने उससे ठानी ।

दानी था ख़ाली हाथ न लौटा कोई
न्यायी था फरियादी हो चाहे कोई
रातों को भेस बदलकर वो फिरता था
दिनों का दुखियों का संकट हरता था ।

लेकिन यदि उसको क्रोध कभी आ जाता
तो जानो जैसे प्रलय वहां मच जाता
पत्ते-सी प्रजा काँप उठती थी थर-थर
दानी राजा बन जाता सिंह भयंकर ।

ग़ुस्से में राजा अन्धा हो जाता था
जो पड़े सामने उसे फाड़ खाता था
उसके विवेक पर पर्दा पड़ जाता था
वो उचित और अनुचित न समझ पाता था ।

इस और भूप का अहंकार था भारी
उस और नियति करती थी कुछ तैयारी
कवि शंकर भी थे उसी राज्य के वासी
कविता थी जिनके चरण-कमल की दासी ।

शंकर सचमुच शंकर थे अवतारी थे
कीचड़ में रह पंकज से अविकारी थे
दुनिया की ले-दे से ऊबे रहते थे
वो अपने भावों में डूबे रहते थे ।

पर नृप का मन्त्री शंकर से जलता था
उसके प्राणों में एक नाग पलता था
कवि शंकर का यश दूर-दूर फैला था
लेकिन मन्त्री राघव का मन मैला था ।

'हे देव आपका यश दुनिया मैं छाया
कवियों ने उसको दूर-दूर पहुँचाया
लेकिन कवि शंकर ऐसा अभिमानी है
सो शब्द न लिखने की उसने ठानी है ।

मन्त्री के बातें सुन राजा गुर्राया
फ़ौरन शंकर को पकड़ वहाँ मंगवाया
शंकर बोले 'कवि नहीं किसी से डरता
प्रभु की दुनिया में होकर अभय विचरता' ।

'मैं वही लिखूँगा जो मन में आएगा
आज्ञा पर मुझसे नहीं लिखा जाएगा
आपका बदन पर ही मेरे शासन है
लेकिन कविता तो मन का अनुशासन है '।

राजा कब सह सकता था हुकुमअदूली
वो गरज उठा 'लगवा दो इसको सूली
इसकी गर्दन में फन्दा कस जाएगा
तब तो ये पागल मेरे गान गाएगा' ।

चढ़ गया उछल कवि फाँसी के तख़्ते पर
झाँका तक डर का भाव न उस चेहरे पर
ले लिए प्राण राजा ने, हत्यारे ने
सर नहीं झुकाया जनता के प्यारे ने ।

फिर कवि शंकर के घर की हुई तलाशी
तब हाथ लगी पुस्तक अपूर्ण कविता की
जिसमें शासक का जयजयकार भरा था
विक्रम जैसा उसका चरित्र उभरा था ।

एकाध कमी की भी उसमें चर्चा थी
पर मुख्य रूप से आदर की वर्षा थी
राजा को उसमें था महान बतलाया
कवि ने जी भरकर था उसका गुण गाया ।

पागल-सा राजा लगा हाथ अब मलने
पछतावे की भट्ठी में लगा पिघलने
जब दुःख की ज्वाला नहीं सहन कर पाया
सब छोड़-छाड़ जोगी का भेस बनाया ।

साधारण जन सा लगा घूमने-फिरने
साधारण जन का दुःख निवारण करने
यदि किसी बात पर क्रोध कभी आता था
वो सदा स्वयं को ही दुख पहुँचाता था ।

औरों को देव समझता ख़ुद को कीड़ा
अन्यों को सुख पहुँचाता ख़ुद को पीड़ा
यूँ बना देवता वो शासक अभिमानी
अब कहो बालको, कैसी लगी कहानी ?

1967