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नहीं हारेगी कभी / सुशीला टाकभौरे
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कितनी कन्याएँ जन्म लेती हैं
कितनी वृद्धाएँ मरती हैं
पर
कितनों को संसार जानता
कितनी मरती हैं अपनी जमात के लिए?
घर-परिवार के छोटे घेरे में
घिरी औरत पहुँच रही है
रोज़ी-रोटी तक
जीवन को धन्य मानती
पर देश समाज
और ख़ुद अपने से—
बेख़बर
पर अब वह सजग है
और सतर्क भी
कि कोई नहीं पाये उसके
बढ़ते क़दमों के रफ़्तार
वह बदलेगी अब
सदियों की परिपाटी
नहीं हारेगी हिम्मत—
नहीं हारेगी कभी—
नहीं हारेगी!