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चारू कात अन्हार / राजकमल चौधरी

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चारू कात अन्हार
नदी-कातमे, मरघट्टीमे, बोन-बाघमे, झाँझ-झोपमे
कानि रहल छथि एक संग
आन्हर मनुक्ख, आ कुकूर, बाघ, सियार!
हमहीँ एकसर ताकि रहल छी
अनन्तमे शब्द। शब्दमे अर्थ। अर्थमे जीवन
जीवनमे एसकर हमहीँ
धूरा-गर्दा-कंकड़-पाथर फाँकि रहल छी।
की बताह अछि सौंसे समाज?
गाम छोड़िक’, खेत बेचिक’, राखि बन्हकी गहना-गुरिया
खान, फैक्टरी, कल-कारखाना दिस भागि रहल अछि।
गाम घरक, घर-डीहक नहि रहल काज?
सत्त कहू, छी अहाँ कत’?
पोथी-पत्रा, ज्ञान-ध्यान, जप, तन्त्र-मन्त्र सभ हारल-
दू आखरकेर पुष्पांजलि, ई प्रेम
क’ सकत स्पर्श की अहाँक हृदय?
चारू कात अन्हार
ग्राम-नगरमे, पथ-भ्रान्तरमे, वनमे बौअयलासँ लाभ?
जीवन समस्त, पृथ्वी समस्त अछि अन्धकूप
कूपमे चमकि रहल अछि विषधर मनियार!

(मिथिला-मिहिर: 10.6.62)