Last modified on 15 अप्रैल 2008, at 19:05

चांदनी रात के हमसफ़र / राकेश खंडेलवाल


(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

चाँदनी रात के हमसफ़र खो गये चाँदनी रात में
बात करते हुए रह गये, क्या हुआ बात ही बात में

ज़िन्दगी भी तमाशाई है, हम रहे सोचते सिर्फ़ हम
देखती एक मेला रही, हाथ अपना दिये हाथ में

जिनका दावा था वो भूल कर भी न लौटेंगे इस राह पर
याद आई हमारी लगा आज फिर उनको बरसात में

जब सुबह के दिये बुझ गये, और दिन का सफ़र चुक गया
साँझ तन्हाईयाँ दे गई, उस लम्हे हमको सौगात में

तालिबे इल्म जो कह गये वो न आया समझ में हमें
अपनी तालीम का सिलसिला है बंधा सिर्फ़ जज़्बात में

आइने हैं शिकन दर शिकन, और टूटे मुजस्सम सभी
एक चेहरा सलामत मगर, आज तक अपने ख़्यालात में

मेरे अशआर में है निहाँ जो उसे मैं भला क्या कहूँ
नींद में जग में भी वही, है वही ज्ञात अज्ञात में

ये कलामे सुखन का हुनर पास आके रुका ही नहीं
एक पाला हुआ है भरम, कुछ हुनर है मेरे हाथ में

ख़्वाहिशे-दाद तो है नहीं, दिल में हसरत मगर एक है
कर सकूँ मैं भी इरशाद कुछ, एक दिन आपके साथ में