भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वितान / अर्चना कुमारी
Kavita Kosh से
Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:50, 26 अगस्त 2017 का अवतरण
भूलक्कड़ हो रहा है दिन
तपते छत के नीचे
तृषा और तृप्ति के मध्य
पृष्ठ गिने जा रहे हैं किताबों के
शब्दों में अन्तस्थ भाव जल
उतर कर दृगों में
शीर्षक की गिनती भिगोते हैं
ठहरने में भय है
डूब जाने का
किनारे-किनारे नदी के
रोपती हूँ मन
बहुत सी कही गयी बातों में
अनकहा सा कुछ नहीं
सुनने जैसी तरलताओं में
अंकन की दृश्यता का गीत है
तुम हो.........
जब कहीं छूट जाएँ शब्द
विस्मृत हो जाए भाव
उलट-पुलट हो जाए गिनती की संख्या
विस्तार का कोई अवयव कम लगे
केवल इतना याद रखना
कि समवेत स्वर में कहा है
प्रेम हमने .......
तुम्हारे दीर्घ में वितान पा रहा है
मेरा ह्रस्व ......!!!