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तेरमॅ सर्ग / उर्ध्वरेता / सुमन सूरो

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गाबी गीत बिहाग-भरवा में किरणॅ के तारॅ पर,
गेलै रात-परी इतरैली चढ़ली मलय बयारॅ पर।
दै केॅ कोयल केॅ पंचम सुर भमराकॅे गुनगुन गुंजार,
कली-कली मंजर-मकूल केॅ गंध-फुलेॅलॅ के उपहार।

नीनॅ केॅ जागरण, तमोगुन अलसैलॅ जिनगी केॅ कर्म,
ध्यानी केॅ झिलमिल उजास के, ज्ञानी केॅ आभा के मर्म।
पिपरॅ के उठलॅ फेंड़ी पर एकाकी बैठी चुपचाप;
भीष्में गंगा में निरजासै कर्मभूमि के सुख-दुख ताप।

लहर तरंगॅ सें आबै छै कलकल-छलछल सतत निनाद
गीत बनी हिमपति के करूणां पोछै मानॅ जगत-विषाद।
रही-रही तैरै आँखी में जगमग उजरॅ विमल अतीत,
भरतवंश के परम्परा-सोतॅ में बहलॅ नेह-पिरीत।

”काल-काल के साखी रं संस्कृति के गंगा छै गतिमान,
तम-प्रकाश अज्ञान-ज्ञान के रगड़ सनातन साँझ-बिहान
आध्यात्मिक सुख कभी, कभी भौतिक सुख में डुबलॅ संसार,
स्वरलोकॅ में कभी पतालॅ में खोजै जिनगी के सार।

घूमै छै रथ के पहिया रं त्याग-भोग के जीवन-चक्र
सहज-सरल अपनेती महिमा, स्वारथ फदा-कुटिल-कुचक्र।
स्वच्छ चान्दनी के शीतलता मृग-मरीचिका में लयमान,
कोन कारणें भँङठी गेलै जन-समाज के सहज विधान।

कसकी उठलै रूप-छश्रटा रं यम-नियमें के सुन्दर राह,
अपरिग्रह अस्तेय अहिंसा ब्रह्मचर्य सतशील उछाह।
प्रेमॅ के बगिया में फुललॅ निश्छल सुख के गमगम फूल,
सलग समैलॅ व्यक्ति समाजॅ में, समाज व्यक्ति में समूल।

दिन डुबला सें जेना पसरै अमबस्या के धोर-अन्हार,
हरा-हरा पत्ता झड़ला सें जंगल लागै छै झंखाड़।
कुछ उझंख रं वहिने ऐलै कालचक्र के साथॅ में;
घ्रास बनी गेलै परम्परा कुल के ओकरा हाथॅ में।

पिता गमन सुरलोक यशस्वी चित्रांगद भ्राता के मीत,
काशिराज के दू कन्या सें बोहा विचित् वीर्य इकलौत।
ओकरो मरण बिना संतानॅ के कुल पर बज्जड़ आघात;
धरती के ग्रह-दशा बदललै मानॅ होने शनि-सम्पात।

राजवंश के क्रम-विकास लेॅ सत्यवती माता के मोह,
वै भीषण संकट कालॅ में चिन्तित रिसि ब्रह्मिष्ट के टोह।
‘कुल के नाश नगीच’- विपत सें बस उबरै के एक सवाल;
सभाकक्ष में सब चेहरा पर, सब अंतर में एक बवाल।

मक्खन सें घी रं निकलै छै मथला पर बातॅ के सार,
विधवा काशिराज कन्या जों हुवेॅ नियोगॅ लेॅ तैयार।
तभैं विपत ई टरेॅ सकै छै भरतवंश के माथा सें;
जुड़ेॅ सकै छै नया कथा हस्तिनापुरी के गाथा सें।

नै तेॅ भीष्मॅ के बादें शान्तनू-वंश के नाम लेवाल,
कोय कहीं नै रहतै धरती पर खाढ़ॅ छै विकट सवाल।
प्रश्न सरल पर महाकठिन हल, के करतै नियोग-आचार?
एक्के भीष्म वंश-कुलदीपक आरो नै कोनो आधार।

”मिटेॅ वंशक े नाम कि भेंटॅे तीनों लोकॅ के सुखसार,
प्रण तोड़ै के बात भीष्म केॅ नै छै कखनू भी स्वीकार।”

निर्णय सुनी भीष्म के दहली उठलै सत्यवती के प्राण;
खोली देलकै गुप्तभेद-छै एक कुमारा के संतान।
व्यास कृष्ण द्वैपायन मुनिवर विद्या-ज्ञानॅ के अवतार;
हुनका याद करै के लेली माता भै गेलै लाचार।

रिसि ब्रह्मिष्ट ने प्रश्न करलकै- ”माता-कुल नियोग संतान?
भरतवंश के परम्परा में मिलत की ओकरा सम्मान?“
माय मलिनमुख देखी भीष्में लेॅ लेलकै रक्षा के भार;-
”वै संतानॅ केॅ ही मिलतै राजवंश के सब अधिकार।“

”वर्त्तमान के विपत बनी केॅ फुफकारै छै वहॅे अतीत,
नाशै सें कुल बचलै, लेकिन नाशी देलकै नेह-पिरीन!
जे समाज के रीढ़, जिन्दगी में सुख के अक्षय भंडार;
धरती के गरिमामय सौरभ, राजा के यश के आधार।

बिलटो गेलै आय कहाँ हौ मधुरिम सुबह सुनहला साँझ?
एक कुकर्मों छाड़ी देलकै चारो दीश करी बे-भाँज।“

नाटक करबैया र सबटा एक-एक केॅ आबै-जाय
वर्त्तमान के विकट समस्या, अनाचार-कट्ठर, अन्याय।

”लाह घरॅ सें चीर-हरण तक संस्कृति के हरकट अपमान,
गद्दी लेॅ निर्धिन कामॅ के आखिर होते की परिणाम?“

सोचै रही-रही भीष्में ने- ”धरती पर सत के संचार,
होना छ, लेकिन पापॅ के कोन विधीं होत प्रतिकार?“

”एक छमा, बस एक छमा जें काटॅे पारॅे सब अपराध,
बनेॅ अगर जों अपराधो पछतावा-आगिन सोधी साध।
छै लेकिन संभव को कौवा तेजी मांस फलॅ दिश जाय?
राजकाज में दखल त्याज्य छै पुरुषारथ बेरथ-निरुपाय।“

चिन्ता यहीं मथी रहलॅ छै मथली रं भीतर में घोर;
माय अलोपित छै समना सें कलकल-छलछल के सब रोर।

तप के फल निष्फल होला सें जेना कलटै तपी महान,
इच्छाधारी प्राण कचोट पूरा नै होने अरमान।
कुछ वहिने निष्कामा भीष्में ने छोड़लकै दीर्घ निसास;
नम्मा डेगें विदुर पहुँचल चिन्तालीन मनस्वो पास-

”खुशखबरो के बात कि ऐलॅ छै विराट नगरी सें दूत
सती द्रोपदी के साथें छै छेम-कुशल सें सभे सपूत।
पुत्र युधिष्ठिर ने प्रणाम भेजी केॅ पूज्य पितामह पाँव;
इन्द्रप्रस्थ/हस्तिनापुरी में चाहै छै पाबै लेॅ ठाँव।

दुर्योधन के रट छै-पूर्ण हुवै सें गुप्तबास के काल,
पहिने होलै प्रगट फाल्गुनी-छै विचार के यहेॅ सवाल।
गुप्तबास-बनबास फतू पाण्डव केॅ जाबै लेॅ तैयार;
होना छै बस शर्त मुताबिक, नै तेॅ करना छै तकरार।

सूतपुत्र के सह, शकुनि के गुप्त मंत्रणां निपट निभोर,
गद्दी के लालच में दुर्योधन छै डुबलँ पोरम्पोर।
पुत्र मोह में अंध पिता ने बन्द करी केॅ मन के द्वार;
तेजी देने छै विवेक, मानो केॅ अपना केॅ लाचार।

सुधी जनॅ के बृत्ति बन्द छै पूर्वापर के ई अपमान,
प्रतिभा लेली देश बेगानॅ, मूर्खे पाबै छै सनमान।
सद्गुन सदाचार के खिल्ली, चाटुकार के आदर भाव,
भेद-नीति सें प्रजा प्रताड़ित, नेह-प्रेंम सें प्रगट दुराव।

कोना-कातर फुरै नुकैलॅ, सत्यव्रती गुणवान समाज,
अन्यायी-अत्याचारी के भय के आतंकॅ के राज।
दुर्योधन के बोल नियम छै, शास्त्र-वचन के घोर विरोध;
जिनगी केॅ छेंकी खाढ़ॅ छै डेग-डेग भीषण अवरोध।

जन-जन में विद्वेष भयानक, वर्ण-वर्ण कट्टर प्रतिवाद,
वन आगिन नाखीं समाज में पसरी रहलॅ छै अपवाद।
गुणगाहकना कहाँ विलैलै? कहाँ परै लै आदर भाव,
सहचर के अनुभूति अलोपित हृदय-हृदय के सहज बनाव।

काम-क्रोध मद-लोभ-मोह-ईरा में उबडूब जन-समुदाय,
भंगुर भौतिक साधन सें अमृत सुख खोजै करै उपाय।
बैहला गाय दुही केॅ चाहै पावै लेॅ दूधॅ के धार,
परत-परत पसरी रहलॅ छै सद्विवेक पर विकट अन्हार;

भरतवंश के शील-आचरण बनकी बेशीलॅ के पास,
नीति-न्याय केॅ सलग गरासै लेॅ खाढ़ॅ निर्दय इतिहास।
सही समय के गणना, नै तेॅ आय सभा में हमरॅ त्याग,
राजकाल सें निश्चित जानॅ, उगलॅे पड़तै मन के आग।

”शान्त विदुर! तों धीर पुरुष भै केॅ एत्तेॅ न हुवॅ अधीर,
जीतै छै संघर्ष बराबर सत पर डटलॅ छै जे बीर।
सुरजॅ केॅ छेंकी केॅ मेघें ने राखै छै करी अन्हार;
करै हवा के अदना झोंकाँ चित्थी-चित्था तारमतार।

शील-आचरण न्याय-नीति निंगलै वाला भंगुर इतिहास,
पर हमरा नै तनिक भरोसॅ, नै हमरा कंछित विश्वास।
गद्दी खातिर बुनना खून-फसादॅ आतकें के बीज;
बहुत समय तक नै जोगै छै धरतीं नाखारुस नाचीज।

कत्तो करेॅ सुखाड़ हुअेॅ नै धरती सें दुभड़ी के लोप;
सद्गुण-सदाचार के जानॅ नै घटतै कहियो भी ओप
ई छेकै जुग-जुग सें फुललॅ धरती के नाभी के फूल;
बाँटै छै सबदिन सुख सौरभ, सबदिन इतिहासॅ के मूल।

निर्बल के बल राज, राज विद्या-ज्ञानॅ के पहरादार,
राजें जोग छै भविष्य लेॅ, प्रतिभा के अक्षय भंडार।
यें सबने दै छै देशॅ केॅ दीर्घकाल तक गौरव दान;
सुधी जनॅ के वृत्ति परोसै इतिहासॅ केॅ ओकरे मान।

भेद-नीति तेॅ एक राज लेॅ दोसरा राजॅ के हथियार,
प्रजावर्ग लेॅ ऊ अपनाना बनतै अत्मैहन-आधार।
तुरत सड़ै छै बेसरिहन बीजॅ रं छुच्छॅ नीति-विरोध;
दमचुस्वॅ इतिहासॅ के नै राखॅ मन में तनियों बोध।

मंत्री के दायित्व कठिन छै, जानै छॅ तों सबटा बात;
धृतराष्ट्रॅ में नीति-न्याय-प्रेरणा जगाना छौं दिन-रात।
खोली बंद कपाट जराना छौं ओकरा में कुल के जोत;
जे सें जगर-मगर लहराबेॅ शान्ति प्रेम के धजा उदोत।

पापी हुअेॅ सकै छेॅ निर्मल, पाबी केॅ निर्मल आचार,
ज्ञानॅ के रोशनी मिलेॅ तेॅ मूर्खा सीखेॅ सद्व्यवहार।
राजसिंहासन बचेॅ लोक में फेरू सें नेहॅ के राज;
सोचॅ केना पसरेॅ, केना महामोद-मन हुअेॅ समाज।

प्रिय पाण्डव छै सती द्रोपदी साथें छेम-कुशल के साथ,
सत के यह प्रमाण कि कम छै? धरमें के लम्बा छै हाथ।
सही समय के गणना होतै सभा बीच में रहॅ निचिन्त;
राजा केॅ सद् राजनीति के ज्ञान हुअेॅ ई राखॅ तन्त।

चट्टानॅ पर चरण धरी केॅ जेना सिंह हियाबै दूर,
पिपरँ के फेंड़ी पर खाढ़ॅ भं केॅ गंगा केॅ भरपूर।
देखलकै गंगा-नन्दन ने एक नजर में रोकी साँस;
लौटी चललै राजमहल दिश निर्मल जीवन के विश्वास।