Last modified on 17 मार्च 2017, at 15:56

गळगचिया (53) / कन्हैया लाल सेठिया

आशीष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:56, 17 मार्च 2017 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

डोरो कयो -अरे मोत्याँ, मैं ही तो थाँने पो‘र एक ठौड करया मैं ही थाँनै गळहार बणणै रो मौको दियो, पण म्हारो तो कठैई नाँव न नोरो ?
देखै जको ही कवै ओ मोत्याँ रो हार है डोरै रो हार तो कोई को बतावे नीं !
मोती बोल्या - जगत री जीभ तो म्हाँसूं ही को पकड़ीजै नीं। म्हे तो तूं लुक्यो जिया ही उघाड़ में ल्याया पण तूं थारो सरळपणूं छोड़‘र म्हाँने ही आपसरी में अलघा अलघा राखण री बदनीत सूं आखर में मन में गाँठ ही बाँध ली जद‘स म्हे के कराँ ? बापड़ो मिनख तकायत थारै ओछापणै नै लाजाँ मरतो नस रै ओलै ही राखै है !