भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पानदान / नीलेश रघुवंशी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:24, 3 मार्च 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पहली पगार में खरीदूंगी
पिता के लिए एक पानदान

छोटा-सा
होंगे जिसमें मेरे सपने ग्यारह बरस के
और
उनकी जीवन भर की ख़ुशी।

पानदान वह छोटा-सा डिब्बा
रख दूंगी उसमें प्यारे-प्यारे तारे
आसमान--
बुरा मत मानना
देखा है मैंने हमेशा उनमें तुम्हीं को।

माँ हर दिन भरेगी उसमें सुपारी और पान
पानदान दुबका रहेगा पिता के हाथ में
किसी ख़रगोश की तरह
या
मेरा बचपन जैसे उनकी स्मृति में।