भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुक्तक / बनज कुमार ’बनज’

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:14, 18 जून 2017 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जगह नहीं चाही है मैंने, कभी किसी के रूप भवन में।
न मैंने उड़ना चाहा है, कभी किसी के निजी गगन में।
मैं तो बस इतना चाहता हूँ, मुझे समझ कर समिधा, मित्रो!
मन हो तो दे देना मेरी, कभी आहुति प्रेम हवन में।

हाँ में हाँ, बस, कहते रहिए।
मार दुखों की सहते रहिए।
आप ओढ़कर कफ़न पुराना,
पल-पल क्षण-क्षण दहते रहिए।