भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जो कहा नही गया / अज्ञेय

Kavita Kosh से
Deepak (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 12:10, 31 जुलाई 2006 का अवतरण

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लेखक: अज्ञेय

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~


है,अभी कुछ जो कहा नहीं गया ।


उठी एक किरण, धायी, क्षितिज को नाप गई,

सुख की स्मिति कसक भरी,निर्धन की नैन-कोरों में काँप गई,

बच्चे ने किलक भरी, माँ की वह नस-नस में व्याप गई।

अधूरी हो पर सहज थी अनुभूति :

मेरी लाज मुझे साज बन ढाँप गई-

फिर मुझ बेसबरे से रहा नहीं गया।

पर कुछ और रहा जो कहा नहीं गया।


निर्विकार मरु तक को सींचा है

तो क्या? नदी-नाले ताल-कुएँ से पानी उलीचा है

तो क्या ? उड़ा हूँ, दौड़ा हूँ, तेरा हूँ, पारंगत हूँ,

इसी अहंकार के मारे

अन्धकार में सागर के किनारे ठिठक गया : नत हूँ

उस विशाल में मुझसे बहा नहीं गया ।

इसलिए जो और रहा, वह कहा नहीं गया ।


शब्द, यह सही है, सब व्यर्थ हैं

पर इसीलिए कि शब्दातीत कुछ अर्थ हैं।

शायद केवल इतना ही : जो दर्द है

वह बड़ा है, मुझसे ही सहा नहीं गया।

तभी तो, जो अभी और रहा, वह कहा नहीं गया ।


(रचनाकाल / स्थल : दिल्ली, अक्टूबर, २७ , ५३)