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खूंटियों पर टांगते हम / कल्पना 'मनोरमा'
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खूंटियों पर टांगते हम
बेहिचक अपनी उदासी।
मौन दरवाजे संजोती
भोर से करतीं प्रतीक्षा
स्वेदकण भी साँझ ढलते
बाँचने लगते समीक्षा
सिर झुकाए सूना करती
जिन्दगी की उलटवासी।
सोचती रहती न कहती
अनमने मन की व्यथा को
पीढ़ियों से सुन रही हैं
अनकही धूसर कथा को ।
जब अबोलापन सताता
क्लांत मन भरती उवासी।
रात भर करती छिपाकर
हर थकन की मेजबानी
सोखती परिधान से वे
उलझनों की तर्जुमानी
बोझ ढोती ख्वाहिशों का
माँगतीं दिखती दुआ सी।