Last modified on 14 अक्टूबर 2017, at 17:20

मैं से हम / राकेश पाठक

Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:20, 14 अक्टूबर 2017 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

इस अंतस्थ में
कितना कोलाहल है

कितना कुछ भर रखा है अंदर में हमनें

सुनो,
बुद्ध विवेक के व्यतिकरण के लिए
आये थे इसी सलिल तट

वृक्ष के नीचे
यहीं झरी थी ज्ञान की ऊंझा

आओ
इस तट पर सम हो लेते हैं
आओ अपने मैं से
हम हो लेते हैं !