Last modified on 17 अगस्त 2018, at 21:46

झीलें है सूखी / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:46, 17 अगस्त 2018 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

46
बेरुखी तोड़े
सारे प्यारे सम्बन्ध
जीवन-अनुबन्ध,
जब अपने
चोट दे मुस्कुराएँ
किसे दर्द बताएँ?
47
तपती शिला
निर्वसन पहाड़
कट गए जंगल
न जाने कहाँ
दुबकी जलधारा
खग-मृग भटके.
48
झीलें है सूखी
मिला दाना न पानी
चिड़िया है भटकी
आँखें हैं नम
लुट गया आँगन
साँसें भी हैं अटकी।
49
घाटी भिगोते
रहे घन जितने
वे परदेस गए
रूठ गए वे
निर्मोही प्रीतम-से
हुए कहीं ओझल।
50
छाती चूर की
चट्टानों की भी ऐसे
पीड़ा दहल गई.
विलाप करे
दर-दर जा छाया
गोद हो गई सूनी।
51
पीड़ा थी भारी
तुम खिलखिलाई
फिर फूटी रुलाई
न रोके रुकी
बरसाती नदी-सी
धैर्य-तटबंध टूटे।
(13-8-18)