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गंगोजमन / बुद्धिनाथ मिश्र

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और सब तो ठीक है
बस एक ही है डर
आँधियाँ पलने लगीं
दीपावली के घर।

हर तरफ फहरा रही
तम की उलटबाँसी
पास काबा आ रहा
धुँधला रही कासी।

मंत्रणा समभाव की
देते मुझे वे लोग
दीखता जिनको नहीं
अल्लाह में ईश्वर।

नाव जर्जर खे रही
टूटी हुई पतवार
अंग अपने ही कटे
शिवि की तरह हर बार।

हम चुकाते रह गये
गंगोजमन का मोल
रंग जमुना का चढाया
शुभ्र गंगा पर।

बँट रही मुँह देखकर
रोली कहीं गोली
मार गुड की सह रही
गणतंत्र की झोली।

बाँटते अँधे यहाँ
इतिहास की रेवडी
और गूँगे हम, बदलते
फूल से पत्थर।