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द्रुपद सुता-खण्ड-21 / रंजना वर्मा

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सुनो हे कन्हाई हो न, जग में हंसाई कहीं,
होगा अपमान कहाँ, मुख दिखलाओगे।
याद रखना ये गयी, लाज जो सभा में आज,
द्रुपद-सुता को तुम, जीवित न पाओगे।
आस्था डिगे न आस, ये न कहीं टूट जाये,
मैं ही न रही तो कैसे, इस घर आओगे ?
टूटा जो भरोसा कहीं, इस अबला का प्रभु,
पुनः भरोसा किसी, को कैसे दिलाओगे।। 61।।

ढूँढिये न मुकुट न, देखिये मयूर-पंख,
बिखर गयी जो लट, उसे न संवारिये।
बाँसुरी हो खोई कहीं, मिलता न पीत- पट,
शंख पद्म छोड़ बस, चक्र ही सुधारिये।
छोड़ गज बाजि रथ, गरुण सवारी सब,
हस्तिनापुरी को तो, पदाति ही सिधारिये।
हार चुके पांचो पति, आज निज नारी किन्तु,
साँवरे ! बहिन आप, अपनी न हारिये।। 62।।

दुख कीजिये न यदि, छूटे द्वारिका का धाम,
छोड़ने की रीति आप, की ही ये पुरानी है।
शैशव जननि तज, गये थे यशोदा-गृह,
वहाँ भी पुकार कब, रुकने की मानी है।
ब्रज भूमि छोड़ी छोड़े, गोप गोपियों के वृन्द,
निस्पृहता में आप, का न कोई सानी है।
छोड़िये न भाई मुझे, जान के परायी जाई,
आप की ये लत सारी, जगती ने जानी है।। 63।।