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आँसू जो पोंछे / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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घने अँधेरे
फिर राहें कँटीली,
साथी न कोई
हैं पलकें भी गीली ।
चलते रहे
थके पाँव घायल
पाएँगे कैसे
लापता गाँव हम,
की थी दुआएँ-
पर न जाने कैसे
शूल वे बनी ,
की केसर की खेती
अभिशप्त हो
वो बनी नागफनी।
कैसे अपने?
दुआओं से आहत,
शाप यदि दो,
करते हैं स्वागत ।
आँसू जो पोंछे
वो लगता विषैला
भाया सदा ही
इन्हें मन का मैला ।
आओ समेटे
वो शुभकामनाएँ
नहीं लौटना-
कहने को घर हैं
ये हिंसक गुफाएँ ।
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