जीवन
कोई पुस्तक तो नहीं
कि जिसे
सोच-समझ कर
योजनाबद्व ढंग से
लिखा जाए / रचा जाए! 
उसकी विषयवस्तु को _
क्रमिक अधयायों में 
सावधानी से बाँटा जाए, 
मर्मस्पर्शी प्रसंगों को छाँटा जाए! 
स्व-अनुभव से, अभ्यास से
सुन्दर व कलात्मक आकार में
ढाला जाए, 
शैथिल्य और बोझिलता से बचा कर
चमत्कार की चमक में उजाला जाए! 
जीवन की कथा
स्वत: बनती-बिगड़ती है
पूर्वापर संबंध नहीं गढ़ती है! 
कब क्या घटित हो जाए
कब क्या बन-सँवर जाए, 
कब एक झटके में
सब बिगड़ जाए! 
जीवन के कथा-प्रवाह में
कुछ भी पूर्व-निश्चित नहीं, 
अपेक्षित-अनपेक्षित नहीं, 
कोई पूर्वाभास नहीं, 
आयास-प्रयास नहीं! 
ख़ूब सोची-समझी
शतरंज की चालें
दूषित संगणक की तरह
चलने लगती हैं, 
नियंत्रक को ही 
छलने लगती हैं
जीती बाज़ी 
हार में बदलने लगती है! 
या अचानक
अदृश्य हुआ वर्तमान
पुन: उसी तरतीब से
उतर आता है
भूकम्प के परिणाम की तरह! 
अपने पूर्ववत् रूप-नाम की तरह!