भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तीन रूबाइयाँ / हरिवंशराय बच्‍चन

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:42, 2 अक्टूबर 2009 का अवतरण

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं एक जगत को भूला,

मैं भूला एक ज़माना,

कितने घटना-चक्रों में

भूला मैं आना-जाना,

पर सुख-दुख की वह सीमा

मैं भूल न पाया, सा‍की,

जीवन के बाहर जाकर

जीवन मैं तेरा आना।


तेरे पथ में हैं काँटें

था पहले ही से जाना,

आसान मुझे था, साक़ी,

फूलों की दुनिया पाना,

मृदु परस जगत का मुझको

आनंद न उतना देता,

जितना तेरे काँटों से

पग-पग परपद बिंधवाना।


सुख तो थोड़े से पाते,

दुख सबके ऊपर आता,

सुख से वंचित बहुतेरे,

बच कौन दुखों से पाता;

हर कलिका की किस्‍मत में

जग-जाहिर, व्‍यर्थ बताना,

खिलना न लिखा हो लेकिन

है लिखा हुआ मुरझाना!