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वो कमल था / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

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वो कमल था
कीच पर जो मिट गया

लाख आईं तितलियाँ
ले पर सजीले
कोटि आये भौंर
कर गुंजन रसीले
मंदिरों ने याचना की सर्वदा
देवताओं ने चिरौरी की सदा

सुन सभी को
कर्म में फिर डट गया

कीच की सेवा ही
उसकी बंदगी
कीच की ख़ुशियाँ थीं
उसकी ज़िंदगी
कीच के दुख दर्द में था संग वो
लड़ा हरपल कीच की ही जंग वो

सकल जीवन
कीच में ही कट गया

एक दिन जब वो कमल
मुरझा गया
कीच ने बाँहों में उसको
भर लिया
प्रेम-जल को उस कमल के बीज पर
कीच ने छिड़का जो नीची कर नज़र

कीच सारा
कमल दल से पट गया