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एक युग की स्वीकारोक्ति / अजित कुमार

तुमको संबोधित कर कितने ही गीत लिखे,

फूलों में, ऊषा में, कन-कन में छवि देखी,

हर समय तुम्हारे ही स्वप्नों में पागल हो

डूबा-उतराया, कभी नहीं विश्राम लिया।


बेसुध होकर मैं इधर-उधर भूला-भटका,

बदनाम हुआ जब गीत प्यार के दुहरा्ये,

लेकिन सोते या जगते सिर्फ़ तुम्हारा ही

चिन्तन मेरे सारे जीवन का प्राण बना ।


फिर एक दिवस आया जब यह मालूम हुआ

'तुम' तो कोई भी नहीं, कहीं भी नहीं रहीं,

'तुम' तो थीं केवल शून्य, मात्र मृग-छलना थीं :

वह वस्तु कि जिसका कहीं, कभी अस्तित्व न था ।


यह जान पड़ा : 'तुमको' तो मैंने इसीलिए

सिरजा था, जिससे एक सहारा पास रहे,

बस उसी तरह जैसे अंधियारे में डरते

बच्चे के मन का भाव कि 'मुन्नी पास खड़ी।'


इसलिए आज स्वीकार किए लेता हूँ मैं :

ओ दुनिया, तुझको झूठ बताया था मैंने ।

जिसको 'तुम' कहकर संबोधित था किया सदा

वह तो केवल मेरे मन की अभिलाषा थी ।


एक सौंदर्यलुब्ध की आत्मकथा

बियाबान जंगल था,

उसके किनारे एक आलीशान महल था-

अनगिनत कंगूरे, कक्ष,

वैभव, कलाकारी दक्ष ।

मैंने जो देखा तो मुग्ध मन हो गया,

उसकी सुन्दरता में जीवन ही खो गया ।


सोचा : अब इसे छोड़ और भला जाऊँ कहाँ,

अच्छा है, निर्जन में रहूँ और गाऊँ यहाँ,

इतना ही नहीं, दिखे अन्य कई आकर्षण,

सुबह स्वर्ग-संगीत, शाम ढले मधु-वर्षण ।


महल के बीचोबीच शुभ्र पट्टिका भी थी,

मुझ जैसे कवि के हित मानो जीविका ही थी।

रहा उस महल में और लिखा उस शिला पर,

स्वेद-रक्त-प्राण किए सब उसपर न्यौछावर,

निर्मित कीं अनेकानेक उत्तम कलाकृतियाँ…


किन्तु एक अशुभ घड़ी आई

भाग्यदेव रूठे,

देवी कला की रूठीं।

उलटे नक्षत्र, कालचक्र हुआ विपरीत,

शत्रु बनकर बोले वे, अब तक जो रहे थे मीत-

कलाकार । अभिशाप साकार करो स्वीकार :

रहते थे जिसमें- रेतमहल हो जाएगा ।

लिखते थे जिसपर-बन जाएगी वही, सुन लो

पानी की एक लहर ।

और कलाकृतियाँ ?

सब भग्नस्वप्न, नष्ट ।

सब बुदबुद, सब व्यर्थ ।