भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
खो बैठे / हरेराम बाजपेयी 'आश'
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:04, 13 फ़रवरी 2020 का अवतरण
कुछ पाने की अभिलाषा में,
जो था वह भी खों बैठे,
पलकों पीछे दर्द छुपा था,
हवा मिली तो रो बैठे।
वर्षों से कर रहा तपस्या,
तन ने किसी को छुआ नहीं,
मन तो मर-मर जिया बेचारा,
किसी का अब तक हुआ नहीं,
जिसे भी अपना लगे बनाने,
वो और किसी के हो बैठे। पलकों पीछे...
अभिलाषा के आसमान पर,
घाना अँधेरा छाया है,
नजर नहीं आता है रास्ता,
पागल मन भरमाया है,
एक किरन की आश लगाई,
तो सारी पूनम खो बैठे।
कुछ पाने की अभिलाषा में,
जो था वह भी खो बैठे,
पलकों पीछे दर्द छुपा था,
हवा मिली तो रो बैठे।