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काव्यानन्द / अजित कुमार

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मूक रहने से तो बेहतर है यही
कुछ ज़ोर से गाओ कि
वे भी सुनें जो चारो तरफ़ घेरे खड़े हैं ।

यह नहीं अच्छा कि मन का राग मन में ही
दफ़न रह जाय ।
अंकुर दो उसे :
फूटे, उठे, ऊपर चढे,
सब लोग छाया में खड़े हों और सुस्तायें,
थकन मेटें :
करें चर्चा प्रकृति की और
मानव की-

यही तो काव्य का आनन्द है ।