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अपनी रेल / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
Kavita Kosh से
उत्तर -दक्षिण, पूरब -पश्चिम
आती -जाती अपनी रेल ।
गाँव, नगर और बस्ती में,
हरदम दौड़ लगाती रेल ।
सबको यह अपना माने,
इसको कोई भार नहीं ।
छोटे और बड़े का इसमें
होता कभी विचार नहीं ।
नदियाँ घाटी या मैदान
हरे खेत या रेगिस्तान ।
सबकी मिलती गोद इसे
सबका पाती यह सम्मान ।
सफ़र प्रेम से कट जाता,
दु:ख मिल-जुल कर बँट जाता।
मेल-जोल है बढ़ जाता
वैर-भाव सब घट जाता ।