भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ग्रीनरूम / अजित कुमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जहाँ पर इन्द्रधनुष पहले-पहले बनते,

जहाँ पर मेघ परस्पर परामर्श करते कि

कैसा रूप धरें जो त्रिभुवन-मोहन हो ।

जहाँ से दृश्य नए खुलते—

वहाँ तक जाकर मैं रूक गया ।


याद अब भी मुझको वह रात,

बहुत दिन पहले की यह बात…

एक नाटक होते देखा :
और अभिनय की हर रेखा
मुझे रँगती-सी चली गई ।
बहुत उद्विग्न हुआ मैं, और,
--चलूँ अब किसी दूसरे ठौर—
सोचकर, उठा और चल दिया ।


अचानक वहीं पार्श्व में दिखा

द्वार, जिसपर ‘सज्जागृह’ लिखा ।

झाँककर मैं भी देखूँ इसे ?-

ज्ञात था किसे ।

कि

श्री की होगी ऐसी राह ।

रँगे जाते थे चेहरे ।

आह ।

जान मैं गया,

जान मैं गया कि:

मुद्रा, अंग-भंगिमा,

गति, लय, भावावेग ,

हास उन्मुक्त, और उद्वेग—

सभी की रचना का यह केन्द्र ।

सभी ‘अभिनय’ का पहला स्रोत ।


तभी से कुछ ऐसा हो गया

कि हर सज्जागृह के

दरवाज़े से ही

मैं वापस आ गया ।


जहां पर रंग और आकार पुष्प पाते,

जहां से स्वप्न सुहाने पलकों पर आते,

वहां तक जाकर मैं थम गया ।


नहीं सोचा- ‘रहस्य को करूं अनावृत, नग्न ।‘

नहीं चाहा- ‘सुन्दरता को यों कर दूं भग्न ।‘

और

इस उलझी-सुलझी यात्रा का

था जहां आखिरी ठौर :

वहां तक पहुंचा-

मुड़ आया ।


कलाकृति


चित्रों में अंकित

पथ,कानन,

सरिताएं, सागर, भू, नभ, घन

लिपि में बँधे हुए,

शब्दों में वर्णित

मैंने देखे ।

मुझे दिखा, मानो

नदियां यों तो बहती हैं

मैदानों में, दूर घाटियों में,

पर उनकी आत्मा रहतीहै

कागज़ पर अंकित चित्रों में ।

मुझे लगा, मानो

दो क्षण रहनेवाली संध्या

बेशक ‘थी’

और कभी आगे ‘होगी’,

किन्तु अमरता और मधुरिमा उसकी ?

--बस कविताओं में ।

“दिवसावसान का समय

मेघमय आसमान से उत्तर रही है

संध्या-सुंन्दरी परी-सी… “

इसीलिए वे हरे, लाल,नीले रंगों से

चित्रफलक पर रँगे हुए

वन,उत्पल, या आकाश

मुझे विह्लल कर देते थे ।

बन्धु । वे सरल-तरल-मंजुल शैली में कहे गए

उपवन, निर्झर, वातास

मुझे चंचल कर देते थे ।


इन सबमें रम जाता था

मैं ।

इसीलिए तो

जहाँ-जहाँ भी दीख पड़ी रचना—

कृति, अनुकृति—

वहाँ-वहाँ थम जाता था

मैं ।

आत्मविस्मृति

पर्वतश्रेणी । शीत हवाएँ । कोहरे-पाले, रूई के गाले-सी हिम से ढँका, मुँदा वह पर्वत-देश । श्वेत श्रृंग— जिनको आकांक्षा छूती धर जलधर का वेश ।

उन्हीं उच्च लक्ष्यों पर बढती हुई एक कोई छाया, ऊपर ही ऊपर को चढती हुई एक कोई काया । --पर्वतआरोही की काया ।

वह पर्वतआरोही । मैं हूँ जो मैदान, नदी, टीले, कछार, घाटियाँ पारकर आया हूँ । ऊँचे पर्वत की चोटी छूने को आया हूँ । (:आर्टगैलरी में पर्वत का चित्र देखकर आया था, उस क्षण मेरे मन में ऐसा अद्भुत भाव समाया था ।)

प्रकृति उजड़ा, अन्तहीन पथ ।- जिसपर कोई कभी नहीं भटका था ।

मैं जब उसपर चला,

मुझे मालूम हुआ- कुशनों-क़ालीनों के फूलों पर चलना, गुलदानों में लगे गुलाबों से अपने मन को छलना । होगा । कुछ तो होगा ही । पर उन सबसे यह भिन्न । यही इस वन-पथ पर खोया-खोया रह, बिना किसी उद्देश्य भटकना ।

हर नन्हे जंगली पुष्प पर, हर पंछी की विकल टेर पर काफ़ी-काफ़ी देर अटकना ।

पुनरावृत्तियाँ 1 (रात के पिछले पहर में स्वप्न टूटा । दीप की लौ आखिरी-सा उस समय था भोर का तारा टिमकता । चाँद की टूटी लहर में तैरती-सी दिख गयीं अरुणाभ किरनें …) --बार-बार मैंने यह सोचा : चलो, आज से नयी ज़िन्दगी शुरू हुई ।

   एक लड़ाई लड़ी, खतम की


आगे की मंज़िल, पहले की मंज़िल से है कुछ तो भिन्न, भिन्न, और शायद विच्छिन्न । तबसे बीत गये कितने ही लम्बे-आड़े-तिरछे वर्ष ।


लेकिन पाता हूं- अब भी हैं : वही, वही, वे ही संघर्ष । जो पहले था, वही आज हैं- वही स्वप्न, वे ही आदर्श ।

2 (हाय । कैसी थी कहानी । अश्रु के भीगे कणों से, प्यार के मीठे क्षणों से रची वह कैसी कहानी । कौन जाने कब सुनी थी, कहाँ की थी, और किसकी ? किन्तु अब भी बची वह कैसी कहानी ?…)

-कितनी बार किया यह निश्चय : अब किताब को पढकर रोना खत्म हुआ । एक उम्र थी: नहीं रही । अब किताब को पढकर सिर्फ़ विचारेंगे, बिसरा देंगे ज़्यादातर, थोड़ा-सा मन में धारेंगे ।

        लेकिन यह सब नहीं हुआ ।
        उसको ‘कृत्रिम’ कहा अगर,
        ‘यह’ ज़्यादा कृत्रिम जान पड़ा ।
         सहज बनूँ कैसे ?
          उधेड़बुन यही शुरु से थी :
          अब भी ।


3 (कितनी अकेली राह थी, कैसा अकेला साथ था । बेहद थके, डगमग क़दम । लेकिन कहाँ वह हाथ था— जो बढे आगे, थाम ले । …)

--हुआ नहीं कोई भी अपना । नहीं टूटता पर वह सपना । बार-बार जो सोच रहे थे हम कि अकेले ही रह लेंगे । चलो, अकेले ही रह लेंगे ।

बार-बार वह झूठा निकला : एक न एक चाँद मुस्काया किया, ज्वार बनकर मैं उमड़ा ।

4 (राग का जादू हिरन पर छा गया । वह कुलाँचें मारनेवाला खिंचा-सा आ गया…)

--कई बार यह हुआ कि अब संगीत सुनेंगे कभी नहीं । मोहक जो संगीत कहाता : मुझको

  सिर्फ़ उबाता है ।

गहराई से खींच, धरातल पर मुझको

   ले आता है ।
   लेकिन जब भी, जब भी
   काँपे थरथर-थरथर तार,
   और उमड़ी-लहराई स्वर की करुणा-धार

काँपने लगे होंठ हर बार, धड़कने लगे प्राण के तार ।


5 (एक घर था और उसके द्वार में ताला जड़ा था । बन्द घर को कौन खोले । स्तब्धता में कौन बोले । …)

--ऊँचे शिखरों के प्रति मेरी वृहत कल्पना बार-बार रह गई सिर्फ़ टेढी-मेढी, सँकरी गलियों तक

   इनसे बाहर हटकर, उठकर
   किसी अपरिचित ऊँचाई तक जाने की
   जो साध बड़ी थी,
   उसके आगे एक अजब दीवार…



1 …एक बार का सोचा-समझा बार-बार क्यों सच लगता ? बीच-बीच में ‘झूठ’ समझकर भी क्यों उसमें मन रमता । आज : ‘झूठ’, कल : ‘सच’ दिखनेवाली माया का अन्त कहाँ ?

2 स्वप्न वहाँ हैं और यहाँ पर परिणति है । कृत्रिम उधर और आवेगों की क्यों इधर अपरिमिति है ?


3 कौन कहाँ से आया इसका तो कुछ भी आभास नहीं । एक मुझीमें इतना सब कुछ था यह भी विश्वास नहीं ।

4 क्यों दुहराया तुमने उसको कहो, उसे क्यों दुहराया ? भूल नहीं पाये क्यों इसको ? भूलो, अब तो भूलो सब ।


5 जो दीवारें थीं लोहे की, वे दीवारें हैं लोहे की, जैसी थीं वे, वैसी ही हैं । -ऊँचे सिखर किन्तु अब उतने ऊँचे नहीं रहे । पुनरावर्तन, प्रत्यावर्तन किसने नही सहा। लेकिन लौटे हुए व्यक्ति के लिये शिखर तक जाना उतना दुर्लभ नहीं रहा ।


आओ, हम फिर से जियें

आओ, हम फिर से जियें ।

बहता-बहता मेघखंड जो पहुँच गया है वहाँ क्षितिज तक लौटा लायें उसे, कहें : ‘ओ, फिर से बहो । मन, मन्थर, मृदु गति से … शोभावाही मेघ, रसीले मेघ, दूत । जो कथा कही थी, फिर से कहो ।‘

और … अपलक, अविचल हम उसे निरखते रहें, पियें ।

आओ, हम फिर से जियें ।

        000

(प्रकाशन विषयक सूचना –वर्ष 1958, प्रकाशक –राजकमल,दिल्ली,पटना आदि, पृष्ठ-80,आकार डिमाई,मूल्य-तीन रुपये, कापीराइट,1958,अजितकुमार,युगमन्दिर, उन्नाव, वर्तमान पता- 166, वैशाली, पीतमपुरा, दिल्ली-110034, फ़ोन-27314369, मो0 9811225605)