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देखा नहीं उसने पलटकर / अशोक शाह

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वह आती सुबह की धूप की तरह
हल्के कदम रखकर
वक़्त गुजरता ज़िन्दगी का
मुसलसल पहर बदलकर
क्यों रहता बैचेन समन्दर
चीखता हर लहर बदल कर

उदास रात की ख़ामोशी को
तोड़ती सहर में बदलकर
मेरे चेहरे पर जड़ गया ताला
कई दिनों से देखा नहीं उसने पलटकर

बहते अश्कों का सुकून लिए वह
चली गयी मेरे गीतों के हर्फ़ बदलकर
ग़मगीन दिनों का दर्द वह भुला न पायी
आजमाया उसने है खुद को कई शहर बदलकर

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