भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बहनें / लेबोगैंग मशीले / श्रीविलास सिंह

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:47, 8 जनवरी 2021 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं देखती हूँ अनन्तकालों की बुद्धिमत्ता
प्रशस्त जाँघों में
धता बताती सजावटी वस्तुओं के रूप में अपनी उपस्थिति को
मेरी बहनों के मन्दिरों के लिए
सांस लेती हैं प्राचीन आत्माएँ
चॉकलेट के गाढ़ेपन की सुख-सुविधा में
इससे दम घुटता हैं अफ्रीका के फ़रिश्तों का
जो नाचते हैं ताल पर
ब्रह्माण्ड की कोख की
यद्यपि वे नहीं कर पाते अनुभूति
इसकी उत्पत्ति की अपनी शिराओं में ।

मैं हूँ सौभाग्यशाली कि मुझे किया जाता है प्रेम
अपनी ही त्वचा के मन्दिर में
मेरा अन्तरंग चूमता है सूरज को
दिव्य सद्भाव से
उस मलिनता से मुक्त
जो नहीं जानती इसे ईश्वर जैसा ।

किन्तु उत्पीड़न के पुत्रों ने
दी नहीं कभी रोटियाँ बहनों को
बुझाने को उनके पेट की बुभुक्षु-अग्नि
न ही सिखाया उन्होंने करना उन्हें आत्मा की सन्तुष्टि ।

इसलिए मैं प्रार्थना करती हूँ उन आवाज़ों से
जो फुसफुसाती हैं मेरे कोमल सौन्दर्य में
मेरे वंश की शेरनियों के लिए
सुनने को शान्त सरपत के गीत ।

महसूस करने को परिवर्तन के रक्त का हरित स्पन्दन अपने स्तनों में
और जानने को शिशु पालन के मौन में स्वतंत्रता का प्रेमालिंगन
जहाँ उनके चमचमाते आबनूस के शरीर हैं प्रतिबिम्ब उनकी आत्माओं के ।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : श्रीविलास सिंह