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सुदूर / निकलाय रुब्त्सोफ़ / अनिल जनविजय

याद मुझे है आज भी वो सुदूर जंगली इलाका
नदी में जहाँ तैरा करता था छप-छप मार छपाका
जाड़ों में वहाँ जब आता था तेज़ बर्फ़ीला तूफ़ान   
सू-सू-सू सीटी बजाता ताक़त का करता बखान  

वहाँ घर था एक छोटा-सा, लकड़ी का बना
ऊपर से नीचे तक रहता सफ़ेद बर्फ़ से ढका
याद है मुझे कैसे आकाश में तारे थे चमचमाते 
खिड़की के बाहर कैसे पेड़ ज़ोरों से हचमचाते
 
रात होते ही  फैल जाता था वहाँ घना सन्नाटा
और पूरे गाँव में भेड़िया-दल भरता था फर्राटा
पर ख़त्म हो गया सब, गायब हो गया अचानक
सब जैसे बस, सपना था, कोरा कोई कथानक 

कैसे डूब गया जीवन, फिर पैदा हो गई आशा 
रेल मेरी कुछ ऐसी भागी, जैसे हुआ तमाशा  
आँख बन्द कर जब मैं खोलूँ देखूँ यह नज़ारा
अपने उसी छोटे घर में हूँ लगे मुझे जो प्यारा    

दहाड़ रहा है वन में पहले सा बर्फ़ानी तूफ़ान
नदी किनारे सुना रहा है वह कोई भयानक तान 
ठण्डे कोहरे में काँप रहे हैं टिमटिमा रहे सितारे
बर्फ़ में लिपटा घर लकड़ी का खड़ा वन किनारे

मूल रूसी भाषा से अनुवाद : अनिल जनविजय

लीजिए, अब मूल रूसी भाषा में यह कविता पढ़िए
  Николай Рубцов
                      Далекое

В краю, где по дебрям, по рекам
Метелица свищет кругом,
Стоял, запорошенный снегом,
Бревенчатый низенький дом.

Я помню, как звезды светили,
Скрипел за окошком плетень,
И стаями волки бродили
Ночами вблизи деревень…

Как все это кончилось быстро!
Как странно ушло навсегда!
Как шумно — с надеждой и свистом —
Помчались мои поезда!

И все же, глаза закрывая,
Я вижу: над крышами хат,
В морозном тумане мерцая,
Таинственно звезды дрожат.

А вьюга по сумрачным рекам
По дебрям гуляет кругом,
И, весь запорошенный снегом,
Стоит у околицы дом…