भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जीने का दुख / केदारनाथ अग्रवाल

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:43, 9 मार्च 2021 का अवतरण (सशुल्क योगदानकर्ता ५ (वार्ता) द्वारा...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जीने का दुख
          न जीने के सुख से बेहतर है,

     इसलिए कि
                      दुख में तपा आदमी
आदमी आदमी के लिए तड़पता है;

सुख से सजा आदमी
आदमी आदमी के लिए
आदमी नहीं रहता है ।

21 अक्तूबर 1980